यादें
यादें
वृक्षों से गिर कर कब जुडे पत्ते
किताबों रखे कब खिले फूल
पढते समय सोना बचपन में
मोर पंख रखना कोरे पन्ने की तुरपन में
घुंघरू वाली पायल बांधे
रहती थी मतवाली
आज जब भी नयन लगते
पलकों पर दिन बचपन के रहते
चितवन चपल नहीं होती
न याद पलकों पर संगी साथी
याद आता है मुझे
वो हरा भरा वन
छोटी छोटी वन नदियां
वन में मृगछौने
वन देवी का और ग्राम देवता का
रहना रक्षापाल
चली जाऊं वहीं
फिर से फिरूं उस वन मैं
हाल बता दूं मन का जाकर
उन छोटी छोटी वन नदियों से
बरसों का हिसाब कुछ बाकी है
थोडा कर्ज मिट्टी का
थोडा फर्ज दूध का
आतुरता रहती मन मैं हर पल
रूकूं तो रूकूं कहां
मैं फैला कर आंचल
गिरह मैं बांध लेना चाहती एक टुकडा बादल
ओढ लेना चाहती हूं
सूनी रातों मैं
जब भी गरजे या बरसे।
इन्द्रधनुष से रंग हों
आंचल मैं मेरे
कभी खोलूं बिछा दूं उस बादल के टुकडे को जमीं पर
सो जाऊं
खो जाऊं
उसी समय मैं
जहां न कोई अपना था
न अपनापन था
न जिम्मैदारी थी
न मजबूरी थी
समय बदला
चूल्हे बदले
चूल्हों की आग नहीं बदली
उस आंगन से इस आंगन तक
ता उम्र एक रिश्ता निभाते
उस आंगन और इस आंगन की राय निभाते
ता उम्र पिसते हुए
मर्यादाओं की चक्की मैं
लगन बिन माया माटी है
माया बिन लगन कैसा बंन्धन
मृत्यु एक मजबूरी है
जाने वाले
कब ले जाते साथ यादें अपनी।
