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chandraprabha kumar

Classics

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chandraprabha kumar

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श्री वराहावतार कथा

श्री वराहावतार कथा

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श्री विष्णु के वराह अवतार की कथा है

समुद्र में लीन पृथ्वी का उद्धार कर

सम्पूर्ण सृष्टि का विस्तार करना

इनके अवतार धारण का प्रयोजन है ।

प्रस्तुत चित्र में एक ओर दैत्य हिरण्याक्ष बैठा है

दूसरी और नर शरीर एवं शूकर मुँह वाले विष्णु हैं। 


इनके रमणीय चरित्र की मुख्य कथा यह है

कि सनकादिक के शाप से विष्णु का द्वारपाल विजय 

दिति के गर्भ से हिरण्याक्षरूप में उत्पन्न हुआ,

जन्मते ही विशाल राक्षस के रूप में परिणत हुआ। 

उसने सर्वत्र उपद्रव मचाना आरम्भ कर दिया,

कुछ दिनों बाद वह पृथ्वी को चुराकर पाताल ले गया

वहॉं वरुण आदि देवों को महान् कष्ट देने लगा। 

विष्णु के अतुल पराक्रम को सुन युद्ध हेतु ढूँढने लगा।


निरुपाय ब्रह्माजी ने भगवान् विष्णु का ध्यान किया

ब्रह्माजी की नासिका से एक अंगूठे के बराबर

एक श्वेत वर्ण का वराह शिशु प्रकट हुआ,

प्रकट होते ही वह विशाल आकार वाला हो गया

वराह रूप में हरि का अवतार देख सभी ने वन्दना की।

उनका स्वरूप अत्यन्त मनोरम व दिव्य था। 


पुराणों में इन्हें यज्ञ पुरुष माना गया है

इनके अंगों में यज्ञ उपकरणों की कल्पना है,

यज्ञ- वराह विग्रह वाले भगवान् समुद्र में कूद पड़े

जल को चीरते हुए रसातल में जा पहुँचे। 

जहॉं दैत्य हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को छिपा रखा था।

 भगवान् को उद्धार हेतु जान पृथ्वी भूदेवी ने स्तुति की। 


चित्र में वराह रूप धारी विष्णु का वपु हरा है

 सिर दो सींग बना दिये गये हैं जबकि

वराह की दो दाढ़-आगे निकले हुए दो दॉंत होते हैं।

 यज्ञ-वराह ने पृथ्वी को अपना दाढ़ पर उठा लिया

हिरण्याक्ष ने युद्ध द्वारा बाधा उत्पन्न की तो भगवान् ने 

उसका वध कर पृथ्वी को यथास्थान स्थित किया। 


ये आदि वराह पृथ्वी के उद्धार कर्ता हैं

यह अवतार सृष्टि के आदि में प्रलय जल में निमग्न 

पृथ्वी को जल से ऊपर कर देने के लिये हुआ था।

मत्स्य और कच्छप के बाद भगवान् का 

तीसरा अवतार वराह का है, इसके माध्यम से उनका

मानव शरीर के साथ पहला कदम पृथ्वी पर पड़ा। 



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