आत्मकथा खाने की मेज की
आत्मकथा खाने की मेज की
मैं हूं खाने की मेज, चलो सुनाती अपनी कहानी स्वजबानी।
अंग्रेजी में कहें डायनिंग टेबल, मेज खाने की हुयी पुरानी।
मैंने भी देखे जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव भरे परिवर्तन।
कभी चेयर में होते मुगलों के नवाब, तो कभी अंग्रेज गवर्नर।
यही तो विकास की चरम परिणति, के देखो दौर हैं।
कभी रख हाथ शाही अंदाज में बैठते ये महापौर हैं।
सुरा-सुन्दरी से जुड़ता मेरा नाता तो कोई बैठ संगीत सुनाता।
कभी आम आदमी बैठ अपनी जद्दोजहद की गाथा गाता।
कभी मां की ममता दिखती, कभी पिता का अनुशासन।
धीरे से, हौले से छू मुझे अपनत्व प्रेम से सहलाता मन।
कभी केक, काजू, बादाम के साथ चाय काॅफी का प्याला।
कभी कोई बैठ सादगी से, बन जाता कब हमनिवाला।
ईसापूर्व सातवीं शताब्दी ग्रीक मिस्र की सभ्यता मध्य जन्मी।
शुरू में बनी मैं पत्थर, सेलखड़ी, लकड़ी से आज कहां पहुंची ?
कभी कांच की पारदर्शिता, कभी मेटल की सात्विकता।
रोमन साम्राज्य में एक्साकार, जुड़ स्ट्रेचर धातु निकटता।
संगमरमर अलंकृत स्तम्भों वाली, समृद्ध पैरों की जोड़ी।
गाथिक युग में हुई छाती चौड़ी, विकास से न मुख मोड़ी।
शताब्दी 20 में तो नवऔद्योगिक क्रांति से हो गयी दोहरी।
बर्तनों के बदलाव के साथ सज्जा, हुयी फिर-फिर चौहरी।
कभी पोर्शलेन से चीनी मिट्टी, तामचीनी का आया चलन।
कभी कटोरी-प्लेट सोने-चांदी की नवाबों ने खाया शनम।
मिट्टी के भांडों संग चख, स्वाद चौगुना बन गया शान।
अब तो मेरी घर-घर, पैठ, स्टील, क्राकरी से स्टेट्स पहिचान।
बड़े-बड़े डिसीजन, सॉल्यूशन टेबल में निपट जाते हैं।
कभी हंसते कभी गले लग गिलेशिकवे मिटाये जाते हैं।
कभी रोती,सिसकती,देख ख्वाब मन मसोस रह जाती।
कभी गुस्से में हाथ के 2 हथ्थड़ पड़ते मैं सिहर जाती।
कभी पीठ थपथपा मिलती बड़ी प्रशंसा की शाबाशी।
मैं होती केन्द्रीय परिवारिक एकजुटता मिसाल खासी
मेरे बहुत से छोटे भाई बहन काफी, टी, वाइन टेबल आ गए।
नाना रंग-रूप भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार बाजार में छा गये।
गोल, चौकोर, आयत, वर्ग त्रिभुज रूप चन्द्राकार भा गये।
टेबलक्लाथ से ले हैंड नैपकिन तक बदले स्वरूप हो गये।
खूबसूरत गुलाबों युक्त,नक्काशी गुलदान मन मोह रहे हैं।
डच गोल्डेन स्वर्णिम युग की पौटरी चित्र में सोह रहे हैं।
