व्यथा उस अंधकार की !
व्यथा उस अंधकार की !
काँप उठती है अन्तरात्मा भी उस व्याख्या को सोच,
बयां कलम भी नहीं कर पाएगी क्या हुआ था उस रोज़।
उस काल भयभीत हो मैं चीख रही थी,
मनुष्य की वासना क्या होती है, मैं सीख रही थी।
उसके अनैतिक स्पर्श मेरा तन निरन्तर झेल रहा था,
वो दरिन्दा मेरे आत्मसम्मान से पशु- सम खेल रहा था।
मैं बेसुध, तन मेरा रुदन के गीत गुनगुना रहा था,
बाहर प्रकाश किन्तु हृदय में अंधकार छा रहा था।
मेरे लिए वो कभी ना भुलाया जाने वाला दौर था,
बाहर से शांत- सी मैं, किंतु अंदर ही अंदर अत्याधिक शोर था।
सामाज का डर व आत्महत्या का विकल्प मात्र शेष था,
आया तब मेरे जीवन में व्यक्ति एक विशेष था।
विकट परिस्थिति में जो उसने सहारा दिया, वो असीम था।
मेरे मन पर आए गहरे घाव के लिए बना वो एक मात्र हकीम था।
अन्तरात्मा का तूफ़ान शान्त तो हुआ कुछ काल बाद,
किंतु आज भी वो सब भूल नहीं पाई इतने साल बाद।
सोचती हूँ न जाने कितने मासूम इस दर्द से गुज़रे हैं,
टूटे हुए कांच के भाँति ज़मीन पर बिखरे पड़े हैं।
