शक्ति - अस्तित्व के एहसास की !!
शक्ति - अस्तित्व के एहसास की !!
एक दिन सहसा विडंबना में मैं यूँ पड़ी,
न जाने इस मार्ग पर मैं हूँ क्यूँ खड़ी!
जहाँ न मान है न सम्मान है,
प्रतिदिन होता रहा जहाँ मेरे अस्तित्व का अपमान है।
एक स्त्री हूँ क्या यही मेरा अपराध है?
मानती हूँ हाथों में कंगन, नूपुर के जोड़े पैरों में है,
विवशता न समझो इसे मनु मेरी,
समय आने पर प्रतिबंध तोड़े मैंने भी हैं।
अन्नपूर्णा हूँ यदि तो काली का रूप भी मैं ही हूँ ,
आँच आई यदि स्वाभिमान को तो बदलती स्वरूप मैं भी हूँ।
प्रेम में दिखाती यदि स्वर्ग तो प्रतिशोध में बस्ती को बंजर भी बनाती हूँ,
तुम्हारे उपभोग की वस्तु नहीं मैं, इस संसार की जगत जननी कहलाती हूँ।
किरण भी मैं हूँ, कल्पना भी मैं,
शिव भी मैं हूँ, शक्ति भी मैं,
तो फिर क्यूँ प्रताड़ित की जाती हूँ मैं?
कहीं जन्म से पहले मारकर तो कहीं तन के भूखे हैं नाचते,
कहीं दहेज लालची टोकते तो कहीं विद्या के लिए आज भी रोकते।
किंतु बस अब नहीं, हो चुका हैं प्राप्त ज्ञान अपने अस्तित्व का,
मुझको अबला न समझ, भूल तेरी अब ये हैं,
चूँकि कर चुकीं हूँ अनुभूति अपनी शक्ति का मैं।
