व्यथा हिन्दी की
व्यथा हिन्दी की
हमें माँ जो पहला शब्द
सिखलाती है
वो हिन्दी ही होती है
मतलब जो हमारा पहचान
बनाता है
अपनों के बीच सम्मान
दिलाता है
तो फिर झिझक उसे
बोलने में क्यों हो जाता है
चंद पैसों के ख़ातिर
क्यों उसका अपमान सह
जाते हैं
क्यों हिंदीभाषी को गैरों
से नीचे कर जाते हैं
क्यों हम जो अपना नहीं है
बैठा सर पर उसे रूठ मचलते हैं
एक बात है जो दिल के कोने में
हमेशा खटक रह जाती है
आजादी के 75 साल बाद भी
क्यों हम आजाद नहीं हो
पाते हैं
क्यों हम मातृभाषा को दिल
से लगा ना पाते हैं
क्यों बच्चों को हम मुश्किल
शब्दों का जाल थमा जाते हैं
जिसमें फंसकर वो अपना
बचपन गँवा जाते हैं
क्या मातृभाषा में विकास
सम्भव नहीं है
माना पैसे कम है पर
क्या इतना कम है जो
जीने को पर्याप्त नहीं है
या केवल दूसरे भाषा में
ही ज्ञान बचा क्या
अपने भाषा में कुछ भी शेष
नहीं रहा क्या
ग़र थोड़ी ज़मीन अभी भी
मातृभाषा रूपी पौधे को मिल जाता
सींच समाज उसे ही विराट
कर जाता
लेकिन अफसोस ऐसा हो
ना सका
पहचान राष्ट्र का बन ना सका
हो प्रिये कोटि जनों का
फिर भी रह राष्ट्रभाषा कहला
ना सका।