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Dr.Vineeta Khati

Romance

3  

Dr.Vineeta Khati

Romance

वर्षा ऋतु

वर्षा ऋतु

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दूर गगन में आच्छादित होकर ये मेघ कितना इतराते हैं ?

बस दूर से ही झलक दिखाकर नभ में कहीं छुप जाते हैं।।

गरज- गरज कर के सब कितना को डराते हैं ?

 कभी घुमड़ - घुमड़ कर बरसने की आस जगाते हैं।।


और क्षण भर में ही कहीं खो जाते हैं।

धरती न जाने कब से ये सब देख रही थी ।

इंतजार में जाने पलकें बिछाए गुमसुम बैठी थी।।

आस लगाए निहार रही नभ को,हर पल हर क्षण।

अब तो मुरझा गया उसका हर एक- एक कण।।


देख अवनी की दशा मेघ अब भावुक हो जाते हैं । 

धीमी- धीमी बूंदों को लेकर जल बरसाने लगते हैं।।

वर्षा के आगमन से धरती खिल उठती है।

 हरी चुनर ओढ़ के नव वधू सी घूंघट में सिमट जाती है।।

मन ही मन प्रफुल्लित होकर नवसृजन करती है ।


खिल उठती है कई कोपलें ,कलियां उसके मन में।

जैसे कर रही हो नित सोलह श्रृंगार तन में।।

 मानो खुशी से हर जीव झूम उठे हैं सावन में।

 लगता है,आज़ हर आनंद उठा लिया जीवन में।


 मनमोहन सावन में प्रकृति भी झूम रही है।

अपनों की खुशी से लज्जा का घूंघट खोल मदमस्त हो रही है।।

कितना मनभावन है दृश्य ?

जब धरा का हर कण-कण खुशी से झूम रहा।

 

जो बेजान था, वह भी पल्लवित हो उठा।।

वर्षा की बूंदों ने धरती का नव श्रृंगार किया।

जर्जर सी हुई धरा को दुल्हन सा सुंदर रुप दिया।।


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