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Mahendra Kumar Pradhan

Abstract

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Mahendra Kumar Pradhan

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आ भी जाओ ना

आ भी जाओ ना

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आ भी जाओ ना, बस्ती से दूर

उस करिश्माई पेड़ के नीचे

जिसके पत्तों ने हृदयाकृति धर ली है।


कब से खड़ा हूं इसी ठिकाने पर

अब आ भी जाओ ना

बड़ी बेसब्री से तुम्हारी इंतज़ार कर ली है।


लंबा न कराओ जानम अब इंतज़ार

करने को तुम्हारी नज़रों के दीदार

ऐ सनम अब हम बेहद तरसते हैं।


इससे पहले कि हो जाए सवेरा

मुझे दिखा दो सजनी अपनी चेहरा

तुम्हारी प्रथम दर्शन हरपल महकते हैं।


पूर्वी आकाश से हटने लगी है कालिमा

उदित भानु बिखरने लगी हैं लालिमा।

अब आ भी जाओ ना।


मेरी आशा की मान रखलो सनम

रास्ता देख रहे हैं अधीर नयन

अब आ भी जाओ ना।


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