नज़र
नज़र
बिना लबजों के भी कितना
कुछ कह ज़ाती है नज़र
यूँ ही झाँक लो इसकी गहराई में तो
सूरत-ए -हाल बयां क़र ज़ाती है ये नज़र
मह्बूब के नज़र से ज़ब नजर टकराती है
तो सुर्ख़ शरमायी सी नज़रें
आरज़ू सारे मन क़ी कह ज़ाती है
क़भी मोहब्बत की बेपरवाह गुस्ताखियाँ
तो क़भी बग़ावत से भरीं अंगार का झलक़
दे ज़ाती है ये नज़र
ज़ो क़भी दिल भर आया तो
सहमी और वीरान होती है ये नज़र
क़भी झुकी हुई हों तो आपको सम्मान
तो क़भी आत्मग्लानि का
अहसास कराती है ये नजर
या झुक कर ज़ो चुपके से पलक़ उठायें तो
संसार का प्यार भर देती ये नज़र...
ये नज़रों की ही शोख़ियाँ है जो
ज़ो माँ की आँखों में
देखो तो उसके ममत्व
की खुली किताब सी होती है
तो क़िसी गर्दिश में पड़े
इंसान को बादशाह तो
क़िसी बादशाह को भी गर्दिशों का
अहसास कराती है ये नज़र
अपनी खामोशी में भी सब कुछ
कह ज़ाती है ये नज़र।