वृक्ष
वृक्ष
अंकुर फूटते.. पादप बनते..!
प्यार से उसको.. हम सींचते..!
कोपल आतीं.. तब मुस्काते..!
शाखाएं फैलती.. तो हर्षाते..!
फूल-फल वह हम सबको देते..!
स्वयं हमेशा हॅंसते ही रहते...!
वृक्ष जब छाया देने लगते..!
शुद्ध वायु चहुॅं ओर फैलाते..!
किन्तु.................
हे ! मानव तूने क्या जाल बिछाया..!
प्रगति के नाम पर क्या खेल रचाया..!
धरती पर कांक्रीट का जंगल बनाया..!
मोह,माया औ' लालच को अपनाया..!
गुणकारी पेड़ों को तूने काट गिराया..!
वृक्षों की शीतलता को भी बिसराया..!
अब......
समय की है यही पुकार,
कर ले अपनी भूल स्वीकार,
हाथ जोड़कर मॉंग ले माफ़ी,
प्रकृति से तू अभिमानी..
वृक्ष लगाएंगे, हरियाली बढ़ाएंगे,
सबका जीवन हम बचाएंगे।