सिर्फ़ एक दिन..
सिर्फ़ एक दिन..
आराम करना चाहती हूँ सिर्फ़ एक दिन
अपनी सारी जिम्मेदारियों से,
परेशानियों से,
अपनी सारी तकलीफों से
क्या सिर्फ एक दिन मैं
ख़ुद को नहीँ दे सकती,
क्या एक दिन मैं दुबारा अपना
बचपन नहीं जी सकती
क्या मुझे हमेशा ही बड़कपन का ये
बोझिल परदा ओढ़े रखना पड़ेगा
क्या मैं एक अल्हड़ नदी की तरह
वेगों में नहीं बह सकती
क्यों मुझे हमेशा मर्यादित
रहना पड़ता है
मुझे ही क्यों सारे रीति रिवाज़ों
परम्पराओं का पालन करना है
क्या मैं एक दिन स्वछंद होकर
पंछी की तरह उन्मुमक्त आ
काश में नहीं उड़ सकती
क्यों मुझे आराम नहीं करने दिया जाता
उस पर भी मुझे दिन रात हर
रिश्ते में यही कहा जाता है
कि मैं दिन भर करती क्या हूँ
मैं उठाती हूँ तुम्हारी हर वो
जिम्मेदारियां ,हर वो एक परेशानियां
जिनसे तुम स्वतंत्र रह सको
अपनी हर खुशियों को जी सको
मैं दिन रात खुटती हूँ ताकि
तुम चैन से सो सको
मैंने कभी अपने कर्तव्यों का
दाम नहीं माँगा
कभी अपनी नींदों का,
अपनी सेहत का,
अपने प्रेम का हिसाब नहीं माँगा
मैं हमेशा तुम्हारे चेहरे के सुक़ून में
अपनी ख़ुशी ढूंढ लेती हूँ
मुझे तुम क्या परिभाषित करोगे
मैं तो एक बेटी एक माँ
एक पत्नी, एक बहन भी तो
हो सकती हूँ।
