अस्तित्व
अस्तित्व
मैं जब आई थी तुम्हारे अंगना
तो लेके आई थी ढेर सारा विश्वाश, गहरे संस्कार,
नई उमंगें, अधूरे सपनें,
मैंने खुद को सिर्फ़ एक साड़ी मैं नहीं सहेजा था
बल्कि एक परम्परा ओढ़ के आई थी
तुम्हारे घर की परम्पराओं को अपना बनाने के लिए
मैं चाहती थी ख़ुद को पूरा करना तुम्हें पूरा करके,
चाहती थी कि मेरे वज़ूद को तुम्हारे वज़ूद से जाना जाए
न सोचा था,न चाहा था,
खुद को दायरों में इस तरह बांधनालेकिन
मैं चलती रही तुम्हारे लिये, तुम्हारे प्रेम के लिए
निःस्वार्थ, विश्वास रखकर
न जाने कितनी बार बाँधा तुमने,
मेरे विश्वास को गसा तुमनें
मगर तुम्हारे प्रेम के आगे जैसे हार जाती थी मैं
मगर सच कहूँ
तुम्हारे अभिमान को जो खुशी मिलती थी
उसे मैं अपना प्रारब्ध मानकर ख़ुश हो जाती थी,
लेकिन जब मेरे संस्कारों पर तुम्हारे सवाल उठे,
मेरे चरित्र को जब तुमने धूमल किया तो मैं चुप न रह सकी
मैंने तो तुम्हें अपना सर्वस्व सौंप दिया था
फिर किस बात की मेरी ऐसी परीक्षा
आज जा रहीं हूँ मैं तुम्हारा सब तुम्हें सौप के
जो मेरा कभी हो ही न सका
ये तो मेरा भ्रम था जो
मैं खुद को तुम में सौंप कर
हम करने चली थी।

