वर्क फ्रॉम होम
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क्या याद नहीं आती तुमको,
वो आफिस की आपाधापी,
वो नौ से पांच की आज़ादी,
वो यारों के संग बकवादी,
वो घंटों घंटों मीटिंग करना,
वो पीपीटी से सब दुख हरना,
वो नित कागज के किले बनाना,
और चाय कॉफी पर गिले मिटाना,
पिघल रही अब सब ये यादें,
ज्यों ताप से तिल तिल पिघले मोम,
जो करते कभी आफिस में काम नहीं,
वो करते आज वर्क फ्रॉम होम।
सीख गया हूँ पोंछा झाड़ू,
सीख गया हूँ बर्तन धोना,
काम सही कुछ तुम ना करते,
बीवी का बस हरदम ये रोना,
जब ऑफीस जाता था तब मैं,
होता था निज घर का राजा,
अब नौकर से बदतर हालत हैं,
बजा हुआ हैं मेरा बाज़ा,
देव तुल्य सा बॉस है मेरा,
घरवाली बस निपट विलोम,
यही ज्ञान बस मैंने पाया,
करके इतने दिन वर्क फ्रॉम होम।
खुली खिड़की, खुलेंगे द्वार,
ये पंछी फिर चहचाहेंगे,
पहन कर सूट हम फिर से,
निकल आफिस को जाएंगे,
वही रुतबा, वही शौक़त,
फिर मेरा अब लौट आएगा,
मेरा आलस, मेरा गुस्सा,
उन्हें सब फिर से भायेगा,
ऐसी सोच की अनुभूति से,
हैं हर्षित मेरा रोम रोम,
जल्दी खोलो आफिस माधव,
हमसे ना होता वर्क फ्रॉम होम।
