वक़्त
वक़्त
वक़्त से मैं आँखें मिलाने लगा
मेरी ये निडरता
शायद वक़्त को रास न आई
वक़्त ने मुझे फिर तोड़ना चाहा
मेरे हिस्से में धूप तो आई
पर कभी छाँव न आई
मैं धूप के साथ चलता रहा
गिर-गिरकर संभलता रहा
एक छाँव की तलाश में
दर-ब-दर भटकता रहा
वक़्त की गहरी उदासीनता ने
मुझको निढाल कर दिया
न जाने वक़्त ने मुझसे
ये कैसा सवाल कर दिया ?