“वो उल्फ़त के लम्हें”
“वो उल्फ़त के लम्हें”
छत पर बैठी तुमको देखा,
चाँद खिला मुंडेरों पर I
उड़ान भरीअरमानों ने यूँ ,
इश्क़ ज़दा उन पहरों पर I
चाह जो मन में,
यूँ बरसों से पाली थी I
हम समझे थे हाँ तुम्हारी,
तुमने जब, दिल से आह निकली थी I
जाने कैसे उस दिन फिर,
मन ने यूँ उलझाया था
देख के इन आंखों की मस्ती,
दिल तुझ पे यूँ आया था I
तेरे होठों पे थे जैसे,
कोई गुलाबी फूल खिले I
शब् का एक पहर था ऐसा,
फिर आँखों-ही-आँखों में तीर चले I
अभी - अभी जवान हुए जो,
दिल के अरमां ऐसे थे I
रात -रात भर न सोते, जगते हम,
यूँ चाँद - चकोर के जैसे थे I
फिर बीती यूँही कितनी रातें,
कितने ही दिन गुज़र गए I
अपने वो उल्फ़त के लम्हें,
गलियों में तेरी, ख़ुश्बू से बिखर गए I
समंदर हों चाहे कितने ही गहरे I
आख़िर कब तक छिपती ये लहरें,
इश्क़ की आग तो यूँही जलती है,
दुनियाँ के हों चाहे कितने ही पहरे I
अब दिन यूँ बेचैन करें,
और रातें ताना कस्ती हैं I
हाल हुआ मन का ऐसा,
प्यासी जैसे धरती है I
व्याकुल से मन को अपने,
कुछ तो अब तुम समझाओ I
याद करो उस पल की बातें,
और बादल बन फिर बह जाओ I
एक वफ़ा जो मिलने की
अब तो तुम आ जाओ I
बन कर फिर "जुन्हाई - सी",
मन खिड़की पर छा जाओ I
छुप - छुप कर मिलने का,
फिर याद रहेगा वो अफसाना I
ढूंढ ही लेंगे हम – तुम जैसे पागल,
फिर मिलने का कोई बहाना ......
फिर मिलने का कोई बहाना.....I