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Randheer Rahbar

Romance

4.9  

Randheer Rahbar

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“वो उल्फ़त के लम्हें”

“वो उल्फ़त के लम्हें”

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छत पर बैठी तुमको देखा,                               

चाँद खिला मुंडेरों पर I  

उड़ान भरीअरमानों ने यूँ ,

इश्क़ ज़दा उन पहरों पर I


चाह जो मन में,

यूँ बरसों से पाली थी I

हम समझे थे हाँ तुम्हारी,

तुमने जब, दिल से आह निकली थी I


जाने कैसे उस दिन फिर,  

मन ने यूँ उलझाया था                                                           

देख के इन आंखों की मस्ती,

दिल तुझ पे यूँ आया था I


तेरे होठों पे थे जैसे,

कोई गुलाबी फूल खिले I

शब् का एक पहर था ऐसा,

फिर आँखों-ही-आँखों में तीर चले I


अभी - अभी जवान हुए जो,

दिल के अरमां ऐसे थे I

रात -रात भर न सोते, जगते हम,

यूँ चाँद - चकोर के जैसे थे I


फिर बीती यूँही कितनी रातें,

कितने ही दिन गुज़र गए I

अपने वो उल्फ़त के लम्हें,

गलियों में तेरी, ख़ुश्बू से बिखर गए I


समंदर हों चाहे कितने ही गहरे I

आख़िर कब तक छिपती ये लहरें,

इश्क़ की आग तो यूँही जलती है,

दुनियाँ के हों चाहे कितने ही पहरे I


अब दिन यूँ बेचैन करें,

और रातें ताना कस्ती हैं I

हाल हुआ मन का ऐसा,

प्यासी जैसे धरती है I


व्याकुल से मन को अपने,

कुछ तो अब तुम समझाओ I

याद करो उस पल की बातें,

और बादल बन फिर बह जाओ I


एक वफ़ा जो मिलने की

अब तो तुम आ जाओ I

बन कर फिर "जुन्हाई - सी",

मन खिड़की पर छा जाओ I


छुप - छुप कर मिलने का,

फिर याद रहेगा वो अफसाना I

ढूंढ ही लेंगे हम – तुम जैसे पागल,

फिर मिलने का कोई बहाना ......

फिर मिलने का कोई बहाना.....I

 

                    


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