वो कमरा
वो कमरा
आज भी खड़ा है
अपनी जगह
स्थिर ,शांत
स्निग्ध भाव से मौन साढ़े
वो ,
मूक गवाह
जिसकी स्मृतियों में
आज भी विगत की
कितनी विस्मृत स्मृतियाँ बसी हैं
इतिहास के पन्नों की तरह
अनगिनत सुमधुर क्षणों को
देखा है,
कितनी ही आहों और
सिसकियों को सहा है इसने।
षोडषियों के कांधों से
सरकते दुपट्टे के भीतर
अपनी चंचल आँखों से
शौख नज़रें डाली हैं इसने
सबसे दूर अकेले में
एक दूसरे में खोये युगल
की परछाईयों का
भान रहा है इसे ,
आपस में सिमटकर
खोने के कस्मे वादे भी
सुने हैं ,
विगत को भूल
नवांकुरित से बंधनो को
पल्ल्वित होते भी
देखा है इसने।
विगत का गवाह
और ऐसे ही आगत को
आतुर
यही वो चार दीवारें
और वो झरोखा है
पुराने क़िले के खंडहरों के बीच
इतिहास का साक्षी
वो कमरा।