वो कहाँ लौटती है...!
वो कहाँ लौटती है...!
जब साँझ ढ़ले
दिनभर के काम के बोझ से
थके मांदे सब लौटते है
सुकूँ भरी रात्रि विश्राम को
अपने अपने नीड़ में..
पर वो...!
वो कहाँ लौटती है..?
हाड़ तोड़ परिश्रम
बोझिल तन मन लिए वो
वो..
कहाँ जाए अपनी थकान मिटाने..?
ऐसा नहीं कि उसके पास नीड़ ही नहीं
पर क्या मात्र तिनको को जोड़कर
हो जाता है समुचित निर्माण..?
ईट पत्थर से बने इस चार दिवारी में
दम नहीं घुटता होगा उसका
दीवारें नोच खाने को दौड़ाती हैं उसको
अपनों के मध्य की बेरुखी और नकारात्मकता
अत्यधिक तोड़ डालती है उसको
और फिर वो नहीं लौटती रात्रि विश्राम को..
थक हारकर बेबस वही कहीं काटती है
अपनी रात्रि एक अज्ञात भीषण पीड़ा के साथ..!
