वो जीती है कविता
वो जीती है कविता
किसी ने कहा एक गृहिणी क्या लिखेगी कविता भला।
वो चुप थी किन्तु अंतर्मन बोल उठा।
अरे !एक गृहिणी ही तो है जो सिर्फ कविता लिखती ही नहीं ..
वो तो जीती है कविता को हर पल..
और तुम उसके समर्पण, त्याग, सहनशीलता व मौन रहकर
पीड़ा को सहने की कला व उसकी ममता,
रात-रात भर जागकर बच्चों को लोरी सुनाने को।
उसकी झुकी झुकी पलकों पर।
लरजते अधरों पर, खनकती चूड़ी और छनकती पायल पर
उकेरते हो अपनी कविता और तो और
उसके बिखरते अस्तित्व पर भी लिखकर कविता
बटोरते हो वाह वाही।
मानो नहीं है बढ़कर तुमसे कोई हमदर्द।
चेहरे पर बिखरे उसके काले घने आज़ाद केशों को
बादलों के बीच छुपा चाँद बताकर करते हो शामिल शायरी में अपनी।
उसके विरह को, उसके सौंदर्य को ,चंचलता को बनाते हो केंद्र बिंदु
अपनी कविता का और फिर कहते हो ..
एक गृहिणी क्या लिखेगी कविता
किन्तु तुम नहीं जानते एक ग्रहणी पतीले में खदबदाती दाल में भी
ढूंढ लेती हैं कविता।
कड़ाहे में लगते चौंक की सुगंध में भी रच देती है कविता।
अपने भावों को अक्सर रखकर भूल जाती हैं कपड़ों की तह के बीच।
आटा गूँथते उसकी थपक को भी गुनगुनाकर खुश हो लेती है।
वो रचती हैं नून, तेल व लकड़ी में रमते हुए कोई सुंदर कविता।
नो माह की असहनीय पीड़ा को भी बदल देती हैं अपनी कविता में
और फिर ढूंढती है स्वयं को किसी कागज के पन्ने में।।
