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Savita Verma Gazal

Abstract

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Savita Verma Gazal

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"बतिया रही हवाएं"

"बतिया रही हवाएं"

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कल बतिया रही थी हवाएं,कुछ यूं ही।

दिशाओं से सुनो । 

इंसान कहाँ खो गया।कहीं दिखायी देता ही नहीं आजकल।

जिधर देखो भीड़ ही भीड़ दंगा ही दंगा।


क्या वास्तव में आज हर कोई हमाम में नँगा?

ये भी रीत अच्छी पकड़ ली है मुखोटों ने इंसानियत ही जकड़ली है।


हाथ पत्थर,छुरी या हथियार बस खो गयी कलम और किताब।

समझ ही नही आ रहा है आजकल।

शिक्षा के मंदिर हैं या कोई जंग का मैदान ।


कहीँ खोकर रह गयी हैं राम,रहीम की मित्रता व तुलसी ,गालिब और मीरा की वाणी।

गंगा का कर दिया हैआँचल मैला।


धो रहे रक्तरंजित खंजर औरमिटा रहे हैं सन्तों की निशानी,सुनो।


कहीं खो गया है इंसान।तुम तो चंहु ओर रहती हो मंडरातीबताओ न?

क्यों आज रोती है धरती?सखी कुछ तो करो जतनआदमी को ढूंढ लाने का ।


ज़ख्मी माँ भारती कब तक लाशें रहेगी ढोतीअपनी ही सन्तानों की।

मारने वाला भी तो है कुपुत्र उसी का ।


कैसे ढूंढें इंसान सखी चिंतित हो दिशाएं कही।

हर तरफ बस शोर ही शोर हैंहर कोई यहांमनावता का चोर है।


सबके हाथ रंगे हैं लहू से।हर मांग का रुंआसा सा सिंदूर है।

चूड़ियां खनकने से अब डरती हैंऔर पायल छनकने से दहलती है।


जिधर देखो गिद्ध से नज़रें हैं।बेटियां दुराचार कर जिंदा जा रही हैं जलाई।

अब तुम ही बताओ सखीमानवता कहा समायी?हवा थोड़ा चिंतिंत हो मुस्काई।


मैं स्वयं विष पी रही हूँअपनों के उगले विष से विषैली हो रही हूँ ।चलो ढूंढते है ।

आखिर कोशिश करने मेंनही कोई नुकसान ही।शायद मिल जाये इस भीड़ मेंकोई इंसान ही ।।


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