वक्त
वक्त
देख रात ने जो महफ़िल सजाई है,
एक मैं हूं और एक तेरी कमी मौजूद है।
पूछती हूं कई बार की कब आएगा तू,
हँस कर कहता है चांद,
अपने हिस्से की जुदाई गुज़ार कर।
पलट रही सरकारें तू देख ज़रा,
एक तेरी यादें है जो इस्तीफा देती ही नहीं।
नशे में जब मैं घूमती हूं, शक होता है मुझे
की तेरे प्याले में, कभी इश्क़ था भी या नहीं।
बरसों पुराने ख्वाब भी अब पूरे हो रहे हैं
जो तूने कभी मेरे साथ देखे ही नहीं।
जाते ही तेरे, अब खराब सा चलने लगा
बता रिश्वत कितनी, वक़्त ने ले रखी है।
कैसे रोकूँ, एक के बाद एक ख़त्म हो रहे हैं
जो शोख कभी मेरी पहचान हुआ करते थे।

