वक्त
वक्त
चलते चलते खो गया जो,
उस नदी का वो किनारा।
जो बस रहा था ज़िन्दगी की,
डोर थामे एक बिचारा।
क्या उसी की आस में अब,
बीत रहा है वक्त सारा।
या के कोशिश कर रहा ये,
मन हठीला कर इशारा।
आइने के साथ देखों,
रोशनी की बात भी थी।
तुम थे हम थे और संग
कुछ राजदा कसमें भी थी।
एक उसी पल जी रहे थे,
क्या कोई रस्में नहीं थी।
या मेरे मन के भरम की
सोई अभिलाषा यही थी।
काश यूं भी हो ये शाम
कुछ मदिर से गीत गाये।
गुनगुना कर राज़ खोले,
या सुने या कुछ सुनाए।
बादलों को भी बता दे
कैसे इसने राह भुलाये।
या केि ये प्रीत बनकर फिर
से सावन को सजाये।