विरोधाभास
विरोधाभास
क्यूँ मैं कहूँ
पारदर्शी हो तुम
पूरे सौ प्रतिशत
जबकि तुम में
दिखती हूँ मैं...
पर कहीं न कहीं
है विरोधाभास
जहाँ मेरी धड़कनें
मिल गयी है तुमसे
वहीं एक -एक विचार
कहीं छूट गए है...
मैं अनुभव कर सकती हूँ
तुम्हारी विराटता का
अपनी ग्राह्यता के अनुसार
ग्रहण कर सकती हूँ तुम्हें
मिलावटों से निथारते हुए...
पर सांसो की डोर
बंधी है तुमसे ...
और मैं लेना चाहूंगी
जन्म-जन्मान्तर तक जन्म
तुमसे बंधने के लिए
या अपनी मुक्ति के लिए
या फिर
विरोधी सत्य के लिए ?