चाहत
चाहत
कुछ अलग की चाहत होती तो
बस जाती किसी दूसरे ग्रह पर
जहाँ जीवन असंभव है और
रह लेती हवा पानी भोजन के बिना
साबित करती अपनी अलग पहचान
रोज सुबह घंटे भर के लिए
यहाँ टहलने को आती
दो चार चक्कर लगाकर फिर
लौट जाती अपने ठिकाने
कुछ अलग की चाहत होती तो
बन जाती दंतकथाओं की पात्र
आवश्यकता और इच्छानुसार
रूप बदल सबों को करती अचंभित
या फिर जादू की छड़ी लिए
करती रहती चमत्कार पर चमत्कार
क्रीड़ा कौतुक हेतु अपने श्राप से
लोगों को बना देती तोता मेमना
मेरी उँगलियों पर ही नाचते सभी
कुछ अलग की चाहत होती तो
किसी क्लिष्ट या अस्पष्ट लिपि को
अभिव्यक्ति का माध्यम बनाती
और बन जाती मैं रहस्यमयी
पर मैं तो वही हूँ जो सब में है
वही कहती हूँ जो सबका हृदय कहता है
हाँ मैं एक पुकार हूँ चेतना की
अस्तित्व की आवाज हूँ मैं
मैं गूंजती रहूंगी सभ्यता के बाद भी...