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shiv kriti raj

Tragedy

3.7  

shiv kriti raj

Tragedy

विधवा

विधवा

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46


एक अजीब सी विडम्बना है विधवा की इस समाज में,

पति है तो वो देवी वरना पाप है समाज में,,

हर रोज़ है ये झेलती लाखो विचार समाज के ,

पुराने रीतियों से मन नहीं भरा दुष्ट इस समाज का। 


ना हाथो में है चूड़ियाँ ,ना मांग में सिंदूर है,

ना कोई श्रृंगार है,ना कोई आधार है,,

सूनी है आरजू, आंखों में ना वो शान है,

जो सजती थी मांगे ,आज वो भी वीरान हैं। 


 जो पायले छनकती थी पूरे भरी समाज में,

 वो भी है आज खामोश और पूछती एक सवाल है,,

 की जिसने तुम्हे लाया दुल्हन बना इस समाज में,

 क्यों फेर लिया मुंह उसके जाने के बाद समाज ने ।


 लोग कहते हैं शुभ काम में चेहरा इनका नहीं देखते,

 उन्हें क्या पता किस किस हाल को है ये झेलते,,

जिसका खुद हो बुरा हाल ,

वो दूसरे के शुभ दिन क्या बिगाड़ेगा ,

 मन के रची इस विडंबना को कब ये समाज सुधारेगा।


 आज भी हर रोम रोम ये पूछता एक सवाल है ,

 ये रीत है ,या मन की ये झूठी दास्तां है,,

विडम्बना को तोड़ने की आ पड़ी है चाहते ,

  चलो तोड़ डालें इस रीत के चट्टान को।।


                 


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