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shiv kriti raj

Abstract

4.4  

shiv kriti raj

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अकेला मैं

अकेला मैं

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मै अकेला फिर रहा हूं, जिंदगी की तलाश में,

         ना किसी का साथ है, ना किसी की आस है,

   मेरी खुशी से ना किसी को एक कतरा भी रास है,

        संभले फिर रहा खुद मैं पर दिल बड़ा निराश है। 


   क्या मै इतना बुरा ,जो लोग मुंह मोड़ लेते हैं,

       जिंदगी की हर डगर में मुझे अकेला छोड़ देते है,

    बचपन से है पीड़ा पर खुशियां लेकर चल रहा,

      आंखो में है आंसू,पर हर ग़म को मैं तो सह रहा।


   लोगो को लगता है जैसे ढेर सारी मुस्कान है,

         कैसे उन्हें बताऊं ये दर्द की दास्तान है

    

;मुस्का के एक पल में हर मंजर को समेट लेता हूं

         खूबियां हो ना हो पर हर दुख खुद बाट लेता हूं


  कामयाबी तो मिली नहीं इस बात का गहरा जख्म सा है,

      काफी लोगों के लिए ये उनके दर्द दा मरहम सा है,

   तोड़ देते हैं मुझे वो अपनी जाले बुन कर,

       हार जाता हूं अक्सर ये सारी बाते सुन कर।


     चाहता हूं कोई तो अपना हर कदम पे साथ दे ,

         भीड़ जैसी भी हो सफर में वो हमेशा हाथ दे, 

     इस लिए भटक रहा हूं अपनों के विश्वास में

         मै अकेला फिर रहा हूं,जिंदगी की तलाश में।


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