विधवा
विधवा
मैं हुई विधवा
इसमें दोष किसका ?
इसमें दोष विधि का
जिसने ये खेल रचा
छीन लिया मुझसे
जिसने सिंदूर मेरा
और श्रृंगार सारा
लेकिन समाज करता लांछन
मेरे चरित्र पर क्यों
रोकते हर शुभ कार्य से
श्रृंगार और बिंदी लगाने से
अगर मैं करूँ श्रृंगार
और लगाऊँ बिंदी
तो इससे मिलता मुझे
भाव सुरक्षा का
हर उस निगाह से
जो करना चाहती
हनन मेरा
बदल दो यह प्रथा
जो मुझे रोकती है
आखिर मेरी सुरक्षा भी
अधिकार है मेरा
प्रियतम जब तक
श्रृंगार तब तक
फिर क्यों नहीं
आखिर मिलेगा जवाब
कब इसका ?