वहम
वहम
बस के अब मुझ में, कोई आवाज़ नहीं होती,
हां वो होती तो है, मगर उससे कोई बात नहीं होती।
आंखों से हो जाता है, सब बयां,
लफ्जों से कोई बात नहीं होती।
जला तो आया हूं, हर शय उसका,
काश वो शाहिब-ए-असरार नहीं होती।
मिटा भी चुका हूं, हर निशानी उसकी,
बस वो एक शख्स है, जो बाज़ नहीं आती।