!! वेदना !!
!! वेदना !!
खेद, पीर प्रसरित धरती पर
अधरों में करुण रुदन है
छलके- छलके नैन सरोवर
कथा व्यथा की आ नैनों में,
श्वेत बूंद बन रुक जाते हैं।।
नीरवता जब करती कोलाहल
झकझोरती फिर करुण वेदना
बन बिजली तब गिरे हलाहल
निश्चित महलों का खंडहर होना
शून्य हृदय में धैर्य अछूता
बिखरा तन का बल- बूता
छवि सुंदर बोझिल लगते हैं
जब विकल वेदना घर करते हैं।
शीतलता देती कड़वाहट
न हों अपने, मिले जो आहट
घिर-घिर शीत हवा आती है
अश्रु बहाकर संग लाती है ।
मूर्त-अमूर्त में बदले कोने
चकना- चूर स्वप्न सलोने
झर- झर धाराएं बहती हैं
पीड़ा मन को विकल करती है।
है क्या जीवन की, परिभाषा
मूक हुई हो जिसकी भाषा
किन्तु-परन्तु का अब न बसेरा
रुष्ठ हुआ जीवन का सबेरा।
हरियाली प्राणों की बंजर
बिन प्रहार जब चुभते खंजर
खण्ड-खण्ड मन हो जाते हैं
जब करुण गीत मौन गाते हैं।
बन कालरात्रि दिवस जगते हैं
न जुगनू यामिनी से मिलते हैं।
क्या रवि के, शीतल अंगारे
तन को जलाते हैं चांद-सितारे।
है करुणा की गहरी बदली
सुख ने करवट ऐसी बदली
प्रतिक्षण आहत अब हृदय है
व्याकुलता से पूर्ण निलय है।