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PRAVESH KUMAR SINHA

Abstract

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PRAVESH KUMAR SINHA

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उषा की बेला

उषा की बेला

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तम छोड़ने को है अपना राज्य

भागने को हुआ काफी बेचैन

प्रातः काल की बेला से

डरा हुआ है बहुत ज्यादा


चारदीवारी फाँदकर भाग रहा

क्योंकि आ रही है उसका दवा

उषा की किरणें ने डाला डेरा

सब मग्न है नींद की चादर तले


रवि की लालिमा भरी किरणें

तम को भेदती हुयी उतरती

पर्वतों की चोटी से झाँकती

सभी पे अपना असर दिखती


पक्षी करलव कर गीत सुनाती

यह पल है बहुत सुहानी

आती है इसी समय पलको पे

सुन्दर, सुशील स्वप्ना रानी


मीठी स्वप्नों में हमें डुवाती

और अचानक से नीचे गिराती

खिड़की से आती पहली किरण

सभी के चेहरे है ताजगी से भरी


यह बेला है सबसे अच्छी

इसी से होती है दिन की शुरुआत

बच्चे भी अपनी किलकिरी सुनाते

और खेल-कूदकर मस्त हो जाते


इस पहर गजब की उमंग है आती

ओस की बुँदे भी अपनी

माणिक मोती सी चमक बिखेलती

पत्ते भी मीठी-मीठी राग सुनाती


घर की बर्तन भी अपनी ठनक सुनाती

रवि उतरता अपनी रथ से

आँख मलते हुए सभी को जगाती

और दिन भर खूब भगाती


साधु-संत अपना भजन सुनाते

इसी पहर ईशवर का ध्यान लगाते

बढ़ती जाती है जैसे अरुणिमा

लगता जैसे कहीँ पे हवन हो रहा


मधुर मुक्त आभा,सुगंधित पवन से

दिन का गजब सृजन हो रहा

आँखों से आँखों का मिलन होती

ताज़ी हवा से बातचीत होती


सभी स्वीकारते सुप्रभात को

और लग जाते सभी अपने काम में।


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