Untitled
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रसोई की आखरी और ठंडी रोटी
खाते समय उतना बुरा नहीं लगा
जितना बुरा सास को पहरे पर
रात को खडा देखा
ससुराल को शादी के दिन
अपना घर मान लिया
ननद और जिठानी का तुमको
ये कहना कि तूने कमाना इसने खाना
ये बहुत बुरा लगा
जब तुम घर आते
मैं भी तुम्हारा इंतजार करती थी
दिन भर तुम्हारी मां और पिता की घिच घिच
और मजदूरों का जैसा व्यवहार
मेरा मन भी होता था
पहनूं नयी साडी कंगन
पर मेरे हिस्से मैं थी भौजाई की उतरन
मैं ससुराल में रहूं
ठीक ही था पर तुम तो
कभी गये नहीं ससुराल
जिस घर को बनाने मैं
पत्थर मिट्टी ढोई
मेरे संस्कार रद्दी नहीं थे
हां कबाडियों के हाथ लग गये
मुझे ससुराल बुरा नहीं लगा
पर सुराल का परायापन
बहुत बुरा लगा
अपने मां बाप की इज्जत चाही
जिसने कभी रिश्तों की राह नहीं दुहराई
मुझे बुरा नहीं लगा कभी
जब मेरा हर पहला पल
मेरा न हो कर
नौकर जैसा था
दस घर जा कर आती वो
खुद को खानदानी कहती जो
एक दिन भी नहीं निभा सकेंगी
मेरा किरदार
जो मुझपर छींटाकसी करतीं
हंसी उडाती
कहतीं बातें हजार
जीवन की भाग दौड मैं
तुम्हें समय नहीं मिला
मैं पडोस की औरतों की तरह कभी
तुम्हारे साथ नहीं गयी
तुम्हारे मां बाप के डर से
समय बदला होगा
किताबों मैं
आज भी घर गांव रिश्तेदार
ऐसे ही हैं पहाडों मैं
घर के बेटे बैठै रहते पंचायतों मैं
ये बात बुरी लगती
दामाद पाले जायें
बेटे पाले जायें
अपने और पराये के
भेद कैसे मिटाये जायैं
मां बाप कमायें
ऐश से
कुछ बेटे खायें
कुछ दामाद खायैं
घर की लाज
बहू बेटियां निभायें
ये बात बहुत बुरी लगती।