तू ताकती ही रही चाँद को
तू ताकती ही रही चाँद को
तू ताकती ही रही चाँद को,
मैं तुझे रात भर निहारता रहा।
तू अनमनी-सी खड़ी मोड़ पर
नेत्र-जल भर लिए, नेह तेरे लिए
आस में सांस को उलझाते हुए,
प्राण को अंतरतम से पुकारता रहा।
तू ताकती ही रही चाँद को,
मैं तुझे रात भर, निहारता रहा।
कुछ तो ऐसा किया मैंने अनजाने में
सजा में मुझे तेरी बेरुखी मिली।
मुझे आता नहीं, कैसे मनाऊं तुझे,
अपलक नीर नैनों में संवारता रहा।
तू ताकती ही रही चाँद को,
मैं तुझे रात भर निहारता रहा।
काश! आते मेरी गोद में चाँद-बन
लिपट जाती तुझ से मैं चाँदनी बन।
तू आये क्रय मूल्य में आंकने मुझे
जैसे सौदागर कोई विचारता रहा।
तू ताकती ही रही चाँद को,
मैं तुझे रात भर निहारता रहा।
मेरी खता माफ़ कर दो प्रिय
प्रेम जल से तुझे मैं सिंचित करूँ
सोते - सोते, जागते - जागते,
सुस्वप्नों को मन में पसारता रहा।
तू ताकती ही रही चाँद को,
मैं तुझे रात भर निहारता रहा
तमस से खींच कर तेरी बाँह को,
लिख दूँ एक पाती तेरे नाम की।
होंठ रख कर तेरे, होंठ के छोर पर
नयनों में नींद को विसारता रहा।
तू ताकती ही रही चाँद को,
मैं तुझे रात भर निहारता रहा।