तू मुझे मिल चूका हैं...!
तू मुझे मिल चूका हैं...!
मैं नदी सी बहती मगर अचल..
तू आसमाँ में टहलता बादल..
कभी बरसा था मुझ पे, तू जैसे कोई मनचला
देखो यह अफसाना मगर, बारिशों तक ही चला
तुम्हारी प्रेम वर्षा में, रूह सींचती रही
तमन्ना तेरी बुनियाद से मुझे, किनारों पार खींचती रही
बीत चुका अब, वह सावन का महीना
साथ ले गया, तुझसे मिलने का बहाना
तू आँखों से जो ओझल हुआ, फिर कभी मिला नहीं
सच्चा साथी हैं मगर यह मौसम पतझड़ का, मिला हैं तब से ढला नहीं
मैं रुष्ट होकर बैठ गई, अपने ही किनारे
तेरी यादों के मोती, माला में सँवारे
एक बहती पवन ने तब बतलाया, यह बेशक नहीं है विरह
मेरे हर हिस्से में मौजूद है, तू बरसा है मुझ पे कुछ इस तरह
तेरा बूँद बूँद, मुझमें घुल चूका है
तू मुझे मिला तो नहीं, मगर मिल चूका हैं..।

