तुम्हें आवाज देकर क्या करूं
तुम्हें आवाज देकर क्या करूं
आवाज देकर भी तुम्हें, अब क्या करूंगा मैं
मरा हुए जज्बात को, हवा देकर क्या करूंगा मैं
तुम्हारे छांव में सोकर, जो काटी थी कई रातें
उन रातों को उम्मीदें, भी देकर क्या करूंगा मैं
मेरे जिस्म में कई यादें पसरी तुम्हारी है
उन यादों को सहारा भी देकर क्या करूंगा मैं
जिंदगी ने बदली न जानें कितनी करवटें
उन करवटों से हिसाब लेकर क्या करूंगा मैं
तुम्हारे देह की यादें भी तुमसे पूछती होंगी
किसी के बाहों में लिपटकर, सोकर क्या करूंगा मैं
मेरे सामने ही एक सूरज निकलकर फ़िर ढल गया
भला ऐसे सूरज से भी नाता रखकर क्या करूंगा मैं
अगर मेरी चांद बनने को तैयार हो तुम
तो फ़िर तुम्हें ठुकराकर क्या करूंगा मैं।