तुम्हारी तलब
तुम्हारी तलब
तलब मेरे नादां दिल को इस कदर मजबूर कर गई
राह-ए-इश्क़ की ओर बढ़ गए कदमों को मजबूर कर गई
ढूंढते-ढूंढते तेरा ठिकाना जिस शहर को हम पहुंचे
तेरे दीवाने के नाम से हमें वहाँ मशहूर कर गई
तेरा दीदार करने को तरसते दीवाने तो बहुत से है
यही एक बात तुझको क्या इतना मग़रूर कर गई
तेरी नज़रों के दरिया में जो डूबे तो फिर ना उबरे
पिलाई एक बूंद जो रिंद को नशे में उसे चूर कर गई
अपने तलबगार की ख्वाहिश ‘वेद’ जो एक बार पूरी कर
क्यों इस ज़माने को तू जन्नत का बिखरता नूर कर गई