तुम्हारी तलब।
तुम्हारी तलब।
ग़ज़ल: तुम्हारी तलब।
सुनो ना तुम्हारी तलब बहुत हो रही है,
सनम तुम्हारी चाहत बढ़ती जा रही है।
कब तक आखिर यह पतझड़ का मौसम,
जाना अब हमारे करीब आकर बहार बनो।
मेरा प्यार तुम्हारे दिल को ना सिर्फ चाहे,
तुम्हारे लिए ये इबादत में तब्दील हो गया।
इस रुप रंग पर कब तक नाज़ कीजिएगा,
एक दिन तो सब यहीं पर धरा रह जाएगा।
कहते नहीं कुछ कि दिल बहुत-बहुत उदास है,
दुविधा में हम कोई अंजान ना आए पास-पास।
सुनो आज-कल प्यार की बातें अपनी होती नहीं,
प्यार में होंठ हिलते-डुलते पर बातें तो होती नहीं।