तुम्हारे जुल्मों की थाह नहीं
तुम्हारे जुल्मों की थाह नहीं
तुम्हारे जुल्मों की थाह नहीं,
मगर मेरे होंठों में आह नहीं।
कभी दहेज के लोभ से
कभी अपनी कुंठा के कोप से
मिटा दी जाती है मेरे हाथों की मेंहदी
कुचल दी जाती है मेरी भावनाएँ,
झुलसा दिए जाते हैं मेरे अरमान
तुम तो जी लेते हो
मगर मेरी कोई राह नहीं।
तुम्हारे जुल्मों की थाह नहीं।
बंद दरवाजे के बाहर की दुनिया
देखेगी तभी मुनिया
जब आने दोगे उसे
अपनी बनाई
काल कोठरी से बाहर
समझोगे उसे बेटे-सा
मैं ना रहूँ मगर रहे मेरी बेटी
सिवा इसके कोई चाह नहीं।
तुम्हारे जुल्मों की थाह नहीं।