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Preshit Gajbhiye

Abstract

4.0  

Preshit Gajbhiye

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तुम्हारे घर का दरवाज़ा ..

तुम्हारे घर का दरवाज़ा ..

1 min
201


सबके लिए खुला है ,

ऐसा रवैया मेरे साथ क्यों नहीं करता ??

तुम्हारे घर का दरवाज़ा ,

अब मेरी बात क्यों नहीं करता ??


झांक कर देख तो लेता कौन आया है तेरी चौखट पर ,

तू खिड़की से दूर क़नात क्यों नहीं करता ??

इतनी बार बजाई है घंटी तेरे घर की ,

मेरी उंगलियां भी मुझ से पूछती है ,

के " यार ये कैसा दोस्त है तेरा ! "

गलती ना होने पर भी माफ क्यों नहीं करता ??


तुम्हारे घर पर कभी डांकां पड़ जाए 

तो मैं ये चौखट भी लांघ लेता ,

डांका डालने की हिम्मत कोई कज़ाक क्यों नहीं करता !

ऐसी नफ़रत से अच्छा था के रूठ जाता तू मुझसे ,

तेरे ही आंगन से फूल तोड़कर मनाता तुझे ,

तू पहले जैसा मज़ाक क्यों नहीं करता ??



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