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Beena Ajay Mishra

Abstract Tragedy

4.5  

Beena Ajay Mishra

Abstract Tragedy

तुम महामानव!

तुम महामानव!

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236


तुम्हारी भुजाओं में क्रोध 

तुममें दर्प अपार

तुम विस्फोटक तीव्र 

कि हर कण में 

परमाणु का महाबल 


जब तुम्हारे चरण

भूमि पर टिकें

कंपित हो उठे

धरती की छाती

और डोल जाए


सौर-मंडल का 

समस्त ब्रह्मांड 

अक्षांश और देशांतर 

अंकित करते हो तुम 

इधर- उधर यूँ कभी

अपने ललाट पर


तुम्हारे चुप में मना है

किसी भी मुखर के 

हज़ारवें अंश का भी मुखर होना

और आज तुम निस्तेज, 

हे महामानव ! तुम कितने

विवश, शिव का-सा तांडव

करने की आकुलता में 

विक्षिप्त, बंद दिशाओं से


टकराकर लौट रहे हो

लौट रहे हो उसी गहन विवर में 

जहाँ से एक विशाल

पगडंडी मापकर


प्रायः प्रतिक्षण गर्त में गिरते

पहुँचे हो यहाँ इस धुरी पर

काल के प्रवाह को 

सदा के लिए काट देने की 

अमिट आकांक्षा लिए।


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