तुम महामानव!
तुम महामानव!
तुम्हारी भुजाओं में क्रोध
तुममें दर्प अपार
तुम विस्फोटक तीव्र
कि हर कण में
परमाणु का महाबल
जब तुम्हारे चरण
भूमि पर टिकें
कंपित हो उठे
धरती की छाती
और डोल जाए
सौर-मंडल का
समस्त ब्रह्मांड
अक्षांश और देशांतर
अंकित करते हो तुम
इधर- उधर यूँ कभी
अपने ललाट पर
तुम्हारे चुप में मना है
किसी भी मुखर के
हज़ारवें अंश का भी मुखर होना
और आज तुम निस्तेज,
हे महामानव ! तुम कितने
विवश, शिव का-सा तांडव
करने की आकुलता में
विक्षिप्त, बंद दिशाओं से
टकराकर लौट रहे हो
लौट रहे हो उसी गहन विवर में
जहाँ से एक विशाल
पगडंडी मापकर
प्रायः प्रतिक्षण गर्त में गिरते
पहुँचे हो यहाँ इस धुरी पर
काल के प्रवाह को
सदा के लिए काट देने की
अमिट आकांक्षा लिए।