तुम कोई ग़ज़ल लगती हो
तुम कोई ग़ज़ल लगती हो
अप्सराओं में भी तो तुम अव्वल लगती हो।
हँसती मुस्कुराती तुम कोई ग़ज़ल लगती हो।
खोया हूँ मैं , प्रेम का तुम जंगल लगती हो,
मन ढूँढ रहा था जिसको वो संदल लगती हो।
मंदिर की मूरत लगती हो निर्मल पावन,
चलती फिरती तुम ताजमहल लगती हो।
गणित का कोई जटिल प्रश्न सा शायद मैं हूँ ,
मुझको समीकरण सा तुम सरल लगती हो।
खुद में उलझा हूँ मैं तो रेशम के धागों सा,
मेरी हर उलझन का तुम हल लगती हो।
सींचती हो रिश्तों को अपनेपन के अमृत से,
शंकर सी कंठ में रखी तुम भी गरल लगती हो।
मैं भटके मृग का अतृप्त प्यास हूँ और तुम,
बहते झरने का तुम मीठा जल लगती हो।
श्रम के मोती चमकते हैं जब तेरे माथे पर
ओस की बूंदों से भींगी तुम कमल लगती हो।
आवारा बादल सा मैं यूँ ही फिरता मारा मारा,
तू 'दीप' मुझे रब का भेजा फ़ज़ल लगती हो।