तुम इबादत थी
तुम इबादत थी
एक पैगाम थे तुम इबादत की
हम दर्द में लिखे एक ज़िन्दगी थे
तुम कलम कब बने सतरंगो की
बिना हक़ लिए हर पड़ाव को रंगे थे
हम हद की लकीर में एक कैद पँछी थे
तेरे पंख को कब आज़माएँ मेरे ख्वाबों में
तुम उड़ाते रहे हमको एक पतंग की तरह
नज़र ऊंचाई से जमीन को देख के डरते थे
वक़्त की डोर में पल पल गुजरा तेरे साथ
अब जुदाई ज़िन्दगी को मौत बना गयी
अकेले राह में हर पल दिल साथ मिले
जैसे भीड़ में कदम तलाशे हर अनजान चेहरों में।

