ठिठकते कदम
ठिठकते कदम
ठिठक जाते हैं,
कभी कभी कदम मेरे,
जब मैं एक शिक्षिका के रूप में आती हूं,
देने को शिक्षा,मैं भी उसी ढर्रे पर चल जाती हूं,
जो देता है शिक्षा मात्र,
इस अधूरे संसार को,
मानवीय मूल्य से विलग,
बिन पतवार के नाव की,
जो नही सिखाता तैरना,
बिना साधनों के,
इस कृत्रिम दुनिया में,
बिन पतवार की नाव दे,
डूबना सिखा देता है,
संघर्षों और तूफानों में,
पर नहीं सिखाता,
एक अटल हिमालय सा बन जाना,
मानवीय संवेदनाओं को जी पाना,
क्या फिर से नहीं खड़ा कर रहे,
हम वह समाज,
जो भागेगा फिर से,
एक अंधेरे में,
दिशाहीन चाल से,
केवल चंद कागज और भौतिकता कमाने,
और खुद से दूर जाने,
सदा सदा के लिए।।
