तरकश के तीर संवारो पार्थ
तरकश के तीर संवारो पार्थ
मरूस्थल के वीरान रेतीले खंडहरों में
मायूसी से आज पहली मुलाकात हो गई
जो बात कह न पाया था अब तलक
साथ उसके बैठकर आज वही बात हो गई
बातों का सिलसिला अभी शुरु हुआ कि
दिन के उजाले में घनी अंधेरी रात हो गई
सन्नाटे को चीरकर पूछा मायूसी से
कब तक साथ चलेगी बनकर मेरा साया
दर दर की ठोकरें खाई हैं ज़िन्दगी में
सब कुछ खोकर भी कुछ नहीं है पाया
खड़े-खड़े मुस्कुरा रही है मेरे हाल पर
यहाँ जीर्ण शीर्ण हुई है इस मन की काया
लंबी गहरी सांस लेकर बोली मायूसी
तेरी बीमारी का इलाज भी है मैं मानती हूँ
कितना दम बाकी है तेरी औकात में
तू नहीं मगर मैं भली भांति जानती हूँ
बहुत इशारे किए मगर तू समझा नहीं
तेरी फ़ितरत के हर रंग को मैं पहचानती हूँ
ज़माने की ठोकरों को वरदान समझकर
हकीकत के दर्पण में तलाश अपनी पहचान
बेशुमार झटके देगी ज़िन्दगी हर मोड़ पर
वासनाओं के जाल बिछाकर करेगी परेशान
तेरी डूबती कश्ती का अब तू ही किनारा
सागर में मचलती लहरों से मत होना हैरान
ज्यादा कुछ नहीं बस इतना है करना
सोई हुई आशाओं को फिर से है जगाना
जुनून के बुझे चिराग को जलाकर
अंधकार की काली घटाओ को है भगाना
तरकश के जंग लगे तीरों को संवार
जीत से पहले नाकामी को गले है लगाना।
