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सागर जी

Tragedy

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सागर जी

Tragedy

तिरस्कार

तिरस्कार

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हम जाते हैं, जिधर से,

कुछ सवाल उठ जाते हैं।

कौन है, क्या है, क्यों है,

जाल से बुन जातें हैं।


हम क्या हैं, वहीं तो हैं,

जिसकी तुम भी रचना हो।

थोड़ा कम अच्छे, कम सुंदर,

पर उसी की भावना हैं।


एक मन हमारा भी,

जिसमें कई-कई भावनाएं हैं।

दु:ख हैं, हंसी है, इच्छाएं हैं,

तुम्हारी ही तरह संवेदनाएं हैं।


कुछ है अलग तुममें,

इस बात से मनाही नहीं।

पर ये भेदभाव की रेखा,

हमने तो खिंचवाई नहीं।


क्यों फिर, ईश्वर रचित मन की,

गहराई संकुचित सी हो गई है।

जिस रचना से प्रेम ईश्वर को भी,

इक जाति वो तिरस्कृत सी हो गई है।


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