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Manansh Pokhariyal

Drama

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Manansh Pokhariyal

Drama

तीन दोस्त

तीन दोस्त

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नया विद्यालय, प्रथम दिवस था, थी वो कक्षा दो

घेरा मुझको, घूर घूर के, देख रहे थे वो

डरा सहमा मैं, नज़र चुरा के, बच रहा था सब से

खा न जाएं, सब मिल कर ये, दुआ मेरी थी रब से।


समझ न आया, इन बच्चों में, किसको दोस्त कहूँ

सूक्ष्म भरोसा रख, किस पे मैं मित्र प्रस्ताव रखूँ

ह्रदय बोला, तू बढ़ आगे, तू बोल निःसंकोच

संकुचित मन, मटकता बोला, पहले कम होने दे बोझ।


इस लंबी रस्साकसी में, मन का पलड़ा भारी

इस तरह, ज़ालिम संसार, फिर हारी ह्रदय नारी

सो बैठ गया मैं वापस, अपनी कुर्सी में जा कर

वहीँ धर पटका ज़िन्दगी ने, कुछ क्षण घुमाकर।


तभी दिखे मुझे, खुद के सामने दो प्रतिबिम्ब

गिलहरी सा सहमा हुआ मैं, था महसूस कर रहा निम्न

उन बड़े आकारों में से, कुछ मधुर आवाज आई

काँधे पर हाथ रख कर, वे प्रेम से बोले भाई।


संकोच की चादर चीर मैं, डर से गया जीत

वह दिन था, जब मित्रता की, खड़ी हुयी थी नींव

साथ बैठते, मस्ती करते, वह पीछे वाली बेंच

घर घर के व्यंजन चख पाते, करते हुए लंच।


गली के सबसे कोने वाली, हलवाई की दुकनिया

वहाँ के गर्म समोसे, उनपे दो किस्म की चटनियाँ

अतरंगी नामों से, मास्टर जी को पुकारना

रबर बैंड की गुलेल, एक दूजे पे निशाना।

 

एक पे विपदा आयी कभी, दूजे ने पहाड़ उठाया

उनका स्नेह-वृक्ष, निरंतर देता छाया

दिल और मन के मध्य, गर कभी संतुलन गड़बड़ाया

खूब माथापच्ची करके, समझौता इन्होंने कराया।


देखते ही देखते, जाने कब हम बड़े हो गए

जुदा होने के मोड़ पर, खड़े हो गए

समय था बारहवीं के, विदाई समारोह का

आनंदित भी थे, दुःख भी था विरह का।


फिर सारी पीड़ा छोड़ हम मौज में विलीन हो गए

और उसी दिन हम, एक राह से तीन हो गए

अपने अपने सपनों को साकार करने जी

गया कोई चेन्नई, कोई बम्बई और कोई था घर में ही।


मित्र यहाँ बनाने में समय उतना ना लगा

बहुतेरे बने, पर कहीं ना मिला पक्का धागा

इस बंधन का स्तर कभी कम ना होने दिया

इतनी लंबी दूरियों को फ़ोन ने कम किया।


ये ऐसी यादें हैं जो भुलाये भुली नहीं जाती हैं

स्मरण करते ही होंठों पे मुस्कराहट सी दे जाती हैं

आज भी अगर कोई परेशानी आती है

ओ बाल्यपन सहचरों, याद तुम्हारी ही आती है।


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