थोड़ा-थोड़ा इश्क
थोड़ा-थोड़ा इश्क
रोज थोड़ा-थोड़ा उसे लिखता हूँ
इश्क कि किताब को थोड़ा पढ़ता हूँ मैं
जबसे मिले है कई कोशिशो के बाद
कहानी एक नई रोज गढ़ता हूँ मैं
त्योहार हो या कोई भी और दिन
उसके साथ हर पल बिताता हूँ मैं
चाहे जन्नत की परी ही सामने आ जाए पर
और किसी को कभी भी नही चाहता हूँ मैं
चाहे कही किसी भी रास्ते से चला जाँऊ मैं
हर रास्ते पर उसे ही केवल पाता हूँ मैं

