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तालिब हुसैन रहबर

Abstract

5.0  

तालिब हुसैन रहबर

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थक हार कर

थक हार कर

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रात को थक हार कर

जब जाता हूँ घर की ओर

तो मिलते हैं

आसमान की चादर ओढ़े

जमीन की गोद में

लेटे हुए 

कुछ कहे अनकहे किस्से

जिनकी फटी एड़ियाँ

और

पनियाई आंखें करती है बयां 

उनकी आपबीती 

नहीं उनका अनुभव

वहीं थोड़ी दूर

मेट्रो की सीढ़ियों के नीचे

बैठा है 

नौ दस साल का "भविष्य"

ओढ़े किसी

परोपकारी की उतरन

दो पल ठहर कर

सोचता हूँ

क्या नहीं आती इन्हें

पास की दीवार से

पेशाब की बदबू

क्या नहीं खाती

रात की सर्दी इन्हें

क्या नहीं लगता इन्हें डर

फुटपाथ पर सोने का

क्या नहीं खाता

सन्नाटा इन्हें अंदर से

बन पाथेय

ये सवाल चले आते हैं

मेरे साथ

मेरे अंदर

और देते रहते हैं

दस्तक़ 

करते रहते हैं सवाल

क्या करोगे वह वादे पूरे

जिनसे जलता है तुम्हारा चूल्हा ?


©तालिब हुसैन रहबर


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