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तालिब हुसैन रहबर

Others

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तालिब हुसैन रहबर

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दूर तक चीख़ कर ख़ामोशी बरसती हो

दूर तक चीख़ कर ख़ामोशी बरसती हो

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दूर तक चीख़ कर ख़ामोशी बरसती हो कहीं।

इतना टूटा है जैसे की इश्क़-परस्ती हो कहीं।।


उसने रस्मन ही थामा हाथ औ छोड़ा फिर यूँ।

साख़ पत्तों से जुदा हो कर तरसती हो कहीं ।।


मेरे मयख़ाने में हर मर्ज़ का इलाज़ शामिल है।

ग़म-ए-महबूब हो या ज़िन्दगी डसती हो कहीं।।


उसे गुमां था वो छोड़ेगा तो मर ही जायेंगे हम जैसे

निशानी ए इश्क़ की एकलौती वो हस्ती हो कहीं।।


देख 'रहबर' तेरे अब काम की जगह नहीं है वो।

वो शहर ए इश्क़ नहीं रहजन की बस्ती हो कहीं।।



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