दूर तक चीख़ कर ख़ामोशी बरसती हो
दूर तक चीख़ कर ख़ामोशी बरसती हो
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दूर तक चीख़ कर ख़ामोशी बरसती हो कहीं।
इतना टूटा है जैसे की इश्क़-परस्ती हो कहीं।।
उसने रस्मन ही थामा हाथ औ छोड़ा फिर यूँ।
साख़ पत्तों से जुदा हो कर तरसती हो कहीं ।।
मेरे मयख़ाने में हर मर्ज़ का इलाज़ शामिल है।
ग़म-ए-महबूब हो या ज़िन्दगी डसती हो कहीं।।
उसे गुमां था वो छोड़ेगा तो मर ही जायेंगे हम जैसे
निशानी ए इश्क़ की एकलौती वो हस्ती हो कहीं।।
देख 'रहबर' तेरे अब काम की जगह नहीं है वो।
वो शहर ए इश्क़ नहीं रहजन की बस्ती हो कहीं।।