नहीं पता
नहीं पता
रात कलम और मैं
मेरे हाथ में कलम
कलम में स्याही
और सुर्ख स्याही
में लिपटी
मेरी दास्तां
रात को तन्हा शोर
करती हुई ख़ामोशी
सुर्ख स्याही से
चीख चीख कर
कागज़ पर उतरने को
बेबस शब्द
बयां कर रहे थे आप बीती
उन निशानों की
जो मेरे पीठ मेरे सीने
और जन्नघों पर किये थे
उन कंपकपाते होठों
की पुकार
जो उन वहशियों ने
न सुनी थी
मेरे नाखूनों में फँसी
वो जिस्म की खुरचन
और बेतहाशा बहता खून
रो रहा था आज
जब मुंह पर हाथ नहीं
रह गया था एक नाम
जिसमे दफ़न थी
बदनामी की रूह
आज
सब कुछ खाली था
मैं, जिस्म और मेरी रूह
कुछ हलचल तो हुई थी
पर क्या नहीं पता
किसने उठाया
किसने बचाया
और कौन छोड़ गया था
मेरा अधमरा जिस्म
नहीं पता..