तारीख
तारीख
तारीख, तारीख और बस तारीख,
तारीख ही तारीख,
ज़िन्दगी ज़िन्दगी न रही,
बन गई महज एक तारीख।
इतनी तारीखें हो गई,
अब तो याद भी नहीं रहती।
पहले तारीख जुबान पर रहती थी
क्योंकि तारीखें कम हुआ करती थी
अब तो कलैंडर साथ हो
तो भी तारीख याद नहीं रहती।
एक याद हो तो दूसरी भूल जाते,
दूसरी याद आए तब तक पहली भूल जाते।
साल में दिन तीन सौ पैंसठ,
यानी तीन सौ पैंसठ तारीखें,
रोज किसी का जन्म दिन,
किसी की शादी की वर्षगांठ,
किसी का श्राद्ध
किसी की दुकान का शुभ मुहूर्त,
किसी का गृह प्रवेश
किसी की मंगनी
किसी की शादी
किसी की कचहरी की सुनवाई की तारीख
किसी की नौकरी का साक्षात्कार
बिजली का बिल भरने की तारीख
बच्चे की फीस भरने की तारीख
बस तारीख पर तारीख
और इन तारीखों का
पिटारा बनी यह ज़िन्दगी
एक चक्र में घूमती हुई ज़िन्दगी
मानों तारीख न हुई
कोई गोल चक्र हो गया
जिसके चारों ओर घूम रही
ज़िन्दगी
बस गोल गोल बिना किसी मकसद के
कठपुतली की तरह
न अपनी कोई सोच, न ही वजूद
बस सब कुछ एक तारीख के हवाले
जैसे हो कोई चक्रव्यूह
और ज़िन्दगी बन गई
महाभारत की अभिमन्यु
तारीखों के चक्र में घुस तो गई
पर इस भंवर जाल को तोड़ना दुष्कर।
आज कल तो घरों में बूढ़ी दादी माएँ नहीं होती
वक़्त से पहले ही विदा हो जाती है।
पहले दादी माँओं को याद रहती थी
ज़िन्दगी की हर तारीख
बिना इतिहास पढ़े
इतिहास ही क्यों, दादी माएँ तो
कुछ भी नहीं पढ़ती थी
सिवाय ज़िन्दगी के
और याद रहती थी ज़िन्दगी की हर तारीख
उन्होंने बिना पढ़े ही समझ लिया
वक़्त के पल पल का इतिहास
उन्होंने तो जी थी ज़िन्दगी,
जीया था हर लम्हा
बड़ी शिद्दत के साथ।
और आज के बच्चे
इतिहास को रटते हैं
इतिहास को जीते नहीं
इतिहास तो क्या,
ख़ुद का वक़्त भी नहीं जी पाते,
तारीख तो बहुत दूर की बात है।
ख़ुद का मोबाइल नंबर बहुतों को याद नहीं
मिस कॉल करके सामने वाले से पूछते हैं
“भाई, नंबर डिस्प्ले हुआ होगा, बताना जरा”
बस लिखना ख़त्म ही हो रहा था कि
दरवाजे की घंटी बज उठी
अख़बार वाला था,
तभी याद आया
“अरे हाँ, आज तो अख़बार का बिल भरना है”
उफ़ फिर एक तारीख
काश…….
इन तारीखों के चक्रव्यूह से निकल पाता
तो ज़िन्दगी आसान हो जाती
पर चक्रव्यूह बनता गया,
अभिमन्यु फँसता गया
कभी न निकल पाने के लिए
रोज एक नई तारीख
रोज एक जद्दोजहद।
पहले इस रचना की सृजन तिथि लिख दूँ
नहीं तो कल कोई पूछेगा, “कब लिखी थी?”
फिर वही नई एक तारीख………।
