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Jalpa lalani 'Zoya'

Abstract Romance Thriller

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Jalpa lalani 'Zoya'

Abstract Romance Thriller

तारीफ़-ए-हुस्न

तारीफ़-ए-हुस्न

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सुनहरी लहराती  ये ज़ुल्फ़ें तिरी और ये शबाब,

कोमल नाज़ुक बदन तिरा जैसे महकता गुलाब।


बैठ गया तू  सामने तो  साक़ी की क्या ज़रूरत,

सुर्ख़ थरथराते  ये लब तिरे  जैसे अंगूरी शराब।


सहर में जब  तू लेता  अंगड़ाई ओ  मिरे सनम,

तुझे चूमने  फ़लक से उतर आता है आफ़ताब।


रौशन कर दे अमावस की काली अँधेरी रात भी,

मिरा हसीं माशूक़ जब रुख़ से उठाता है हिजाब।


तारीफ़-ए-हुस्न लिखने को  बेताब है मेरी कलम,

ग़ज़ल क्या! 'ज़ोया' तुझ पे लिख दूँ पूरी किताब।

15th January



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